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दिव्य दर्शन- कविता – बिबेकानन्द कुशवाहा

दिव्य दर्शन- कविता – बिबेकानन्द कुशवाहा

लेखान बस्यो कविता म,
आफ्नो राम को जगाइ।।
आंगन मेरो अजोर भयो,
समग्रको दियो जलावन लाई ।।

अंतर मुखी आफू मुडनु,
जगत व्यवहार को विशराइ ।।
आफ्नो रमता रमत हृदय,
अध्यारोमा जागृतिभइ लिनु दियो जलाइ ।।

मोती मानिक सहस्त्र कस्तुरी,
छर्दै हुन्छ अलैकिक गन्ध प्रकश ।।
रामको द्वार आफू पहरा दिनु,
बचाउनु चोर उचाका जाली बदमास ।।

ध्यान धन खजाना लूटन को,
लूटेरा गर्दा छ खुब प्रयास ।।
साइँ काे पहरामा लीन रहनु आफू,
खजाना आफुलाई साइँ बचाउछ साथ ।।

मोक्षवान आफू जन्म जात रहयो,
कंगाल भयो भटकत भवनिधी माही।।
भिख मागन को आदत भयो,
गय सरन राम बिनु मोक्ष हुदैन जग माही ।।

भन्छ विवेकानन्द समग्र मा,
गुरु सरन गइ लिनु आत्मज्ञान।।
भटकत भटनिलाइ दिशा दिखाछ,
चरण गहनु गुरुको!सफल गर्नु जन्म जन्मान्तर फास।।

 

लेखक:- विवेकानन्द प्रसाद कुशवाहा
रौतहट बौधिमाइ ना पा -२ इनर्वा

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